Wednesday 1 June 2022

 

सफलता की कहानी

गागर की बदौलत आकार ले रहा हरियाली का सागर

मरुभूमि में दरख्तों के पल्लवन की अभिनव पहल

    जोधपुर, 01 जून/निरन्तर बढ़ती जा रही ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरणीय खतरों के चलते अधिकाधिक पौधारोपण के साथ ही पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में सर्वोच्च प्राथमिकता से प्रयासों की आवश्यकता आज हर कहीं महसूस हो रही है। इस दृष्टि से सरकार के साथ ही समाजों, संस्थाओं, विभागों, पर्यावरण संरक्षण से जुड़े संगठनों एवं पर्यावरण प्रेमियों द्वारा व्यापक स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। ख़ासकर मरुभूमि में व्यापक पैमाने पर वृक्षारोपण आज की पहली जरूरत है। इसे देखते हुए सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं में खूब सारे प्रयास जारी हैं लेकिन मरुप्रदेश में पानी की कमी, रेतीली और पथरीली भूमि जैसी विषम भौगोलिक परिस्थितियों में पौधे लगाने और उन्हें पल्लवित करने का काम मुश्किलों भरा है।

इसे आसान कर दिखाया है सरकार की एक अभिनव पहल ने, जिसे ‘मटका थिम्बक’ पद्धति कहा जाता है। जोधपुर जिले में इसका प्रयोग पौधारोपण आशातीत सफलता दर्शा रहा है।

अनुकरणीय है तिलवासनी का चारागाह विकास कार्य

इसी का ज्वलन्त उदाहरण दे रहा है जोधपुर जिले की पीपाड़शहर पंचायत समिति अन्तर्गत तिलवासनी ग्राम पंचायत का चारागाह। तिलवासनी में खसरा नम्बर 212 में 9.98 लाख रुपए धनराशि से 2019-20 में महात्मा गांधी नरेगा योजना के अन्तर्गत चारागाह विकास कार्य स्वीकृत किया गया तथा 6.89 लाख की धनराशि व्यय कर पूर्ण किया गया।



इसमें लगाए गए कुल 300 पौधों में से 250 पौधे जीवित हैं और इनका सुरक्षित पल्लवन व विकास हो रहा है। और इसके पीछे मटका थिम्बक पद्धति का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। ग्राम पंचायत तिलवासनी के सरपंच श्री अनिल बिश्नोई ने चारागाह में पौधारोपण के लिए मटका पद्धति के इस प्रयोग की अनुकरणीय पहल की है, जिसके उत्साहजनक एवं आशातीत परिणाम सामने आए हैं।

मरुभूमि के लिए कारगर है प्रयोग

बूंद-बूंद सहेजते हुए पौधे लगाने और हरियाली बढ़ाने की इस अनूठी पहल की शुरुआत मरुभूमि पर्यावरण विकास में शुभ संकेत है। इस पद्धति में जल संरक्षण और पौधारोपण के मध्य बेहतर सामंजस्य का दिग्दर्शन हो रहा है।

मटका थिम्बक पद्धति के बारे में मान्यता है कि यह 4 हजार साल पुरानी सिंचाई पद्धति है जिसका प्रयोग ईरान, दक्षिण अमरीका आदि में किया जा रहा है। इसके बाद इसे भारत, पाकिस्तान, ब्राजील, इंडोनेशिया, जर्मनी जैसे देशों ने भी अपनाया। मटका सिंचाई पद्धति का जिक्र कृषि विज्ञान पर लिखी गई पहली किताब फेन-शेंग ची-शू में किया गया है। किताब के मुताबिक, चीन में इस पद्धति का प्रयोग 2000 हजार साल से भी ज्यादा पुराना है।



पौधों का सुरक्षित पल्लवन हुआ आसान

इसके बारे में जानकारी मिलने के उपरान्त अब मरुप्रदेश में चारागाहों में पौधारोपण के लिए इस पद्धति का प्रयोग अमल में लाया जा रहा है और इसे अपनाया जाकर पौधारोपण होने लगा है।

आम तौर पर पौधारोपण के बाद पौधों के सुरक्षित पल्लवन और विकास के लिए नियमित रूप से सिंचाई जरूरी होती है लेकिन कभी-कभार रोजमर्रा की जिन्दगी में व्यस्तता के कारण से अथवा भूलवश सिंचाई करना भूल जाने की स्थिति में पौधों के विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

इसी प्रकार सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी अथवा सिंचाई प्रबन्धन की कमी के कारण भी समस्या पैदा हो जाती है और ऐसे में पौधों की सुरक्षा और विकास के लिए बहुत अधिक परिश्रम किए जाने की स्थिति आ जाती है। इन सभी परिस्थितियों में मटका थिम्बक पद्धति बेहद कारगर सिद्ध होती है।

यह है मटका सिंचाई पद्धति 

एक मटका लें और उसे पौधे के पास जमीन में गड्ढा खोद रख दें। मटका इस तरह रखा जाए कि उसका मुँह जमीन के बाहर रहे। मटके को ऊपर तक पानी से भर दें। मटके के छिद्रों से पानी रिस-रिस कर पेड़ की जड़ों तक पहुंचेगा और उसको सींचेगा। पौधे के आस-पास घास-फूस, पत्तियां डाल दें ताकि मिट्टी की नमी बरकरार रह सके। मटके को कवर करके रखें। गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश में बरसों से इस पद्धति का प्रयोग हरियाली विस्तार का माध्यम बना हुआ है।

कई ख़ासियतों भरी है मटका पद्धति

मटका सिंचाई पद्धति से 70 फीसदी तक पानी बच सकता है। जोधपुर, बाड़ेमर जैसे रेतीले इलाके में यह पद्धति बेहद कारगर साबित हो सकती है। लोग पौधों को न केवल लगा रहे बल्कि उनको सहेज भी रहे हैं। पौधों की परिजनों की तरह देखभाल की जा रही है। उचित देखभाल से पौधों की संख्या में बढ़ोतरी भी हुई है। हरियाली बढने से मन को भी सुकून मिलने लगा है।

यह पद्धति मिट्टी, पौधों की सेहत और आय तीनों के लिए फायदेमंद है। मटका सिंचाई पद्धति से पानी सीधे जड़ों तक पहुंचता है। सिंचाई पद्धति से पूरे साल फसल उत्पादन संभव है। मटका भरने की जरूरत 20-24 घंटे में पड़ती है। इस पद्धति में पानी के साथ समय की बचत होती है। कम संसाधन और आसान तकनीक अपनाने से ही पौधे का विकास भी तेजी से होता दिखता है।

सबसे आसान है यह तकनीक

इसके जरिए फलों और सब्जियों की खेती भी की जा सकती है। इसमें सबसे कम मात्रा में पानी की खपत होती है यानी पानी की ज्यादा-से-ज्यादा बचत की जा सकती है। यह एक ऐसी सरल, सहज और बिना पैसों की तकनीक है, जिससे कम पानी में भी पौधा जीवित रह सकता है और पानी का भी अपव्यय नहीं होता। मरुस्थल में अब इस तकनीक के प्रति रुझान बढ़ता जा रहा है।

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Sunday 7 February 2016

स्वास्थ्य चर्चा कार्डियोलोजी यूनिट हेड एवं हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. मुकेश शर्मा का कहना है -

सजगता से बचा जा सकता है हार्ट अटैक से
हाथ, कोहनी, कंधे, जबड़े, पेट में दर्द आने पर कार्डियोलेाजिस्ट को अवश्य दिखाना चाहिये क्योंकि हार्ट अटैक आने के लिए जरूरी नहीं कि दर्द सिर्फ सीने में ही आयें। यदि समय पर सचेत हुए तो ही हम हार्ट अटैक से बच सकते हैं।
वर्तमान में ह्दय रोगी बहुत बढ़ गये हैं, ऎसे में चिकित्सकों द्वारा अब यह प्रयास किये जा रहे हैं कि जहां तक हो सके, रोगी की बाईपास सर्जरी को टाला जाए। एंजियोप्लास्टी के उपकरण पूर्व की तुलना में बहुत सस्ते हो गये हैं और लाईफ सेविंग बहुत होने लगी है।

यदि आज हम स्मोकिंग शुरू करते हैं तो उसे बंद करने के बाद उसका दुष्प्रभाव शरीर में पांच वर्ष बाद हार्ट को डेमेज करने की शुरूआत के रूप में दिखाई देगा। अन्य बीमारियों की भांति हम मधुमेह व उच्च रक्तचाप को खाली नहीं छोड़ सकते। हृदय को बचाने के लिए उन पर बराबर नज़र रखनी जरूरी है।
ब्लड प्रेशर सामान्य रहना चाहिये। जिसे एक बार ब्लड प्रेशर हो गया है, उसे नियमित जांच कराते रहना चाहिये क्योंकि उच्च रक्तचाप होने का सर्वाधिक असर गुर्दे पर पड़ता है। घर में आजकल डिजिटल ब्लड प्रेशर मापने की मशीनों का उपयोग होने लगा है। ऎसे में घर में मापा जाने वाल ब्लड प्रेशर 135-85 होना चाहिये।
हृदय की जांच के लिए तीन महत्वपूर्ण टेस्ट एन्डोथीनीयल डिसफंक्शन, कारोटिड आईएमटी एवं ईबीएसटी कराकर हृदय की वास्तविक स्थिति का पता लगाया जा सकता है क्योंकि बीमारी अलग है और उसका ईलाज अलग है। हृदय की आर्टरी में  10 प्रतिशत ब्लोकेज से भी हार्ट अटैक आ सकता है। ह्दय रोग में एस्पि्रन एक कारगर दवा है और एक बार अटैक आने के बाद एस्पि्रन को बंद नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि ऎसा करने से हार्ट अटैक दुबारा होने की संभावना बढ़ जाती है। हार्ट अटैक व ब्लोकेज में कोर्इं समानता नहीं है। दिल की गति अनियंत्रित होने पर रोगी की मृत्यु तक हो जाती है।
               


Sunday 22 February 2015

कामचलाऊ न बने रहें वरना बुढ़ापा बिगड़ेगा

आलेख ( 22 फरवरी 2015 के लिए)
कामचलाऊ न बने रहें
वरना बुढ़ापा बिगड़ेगा


- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
इतिहास में वे लोग अमर होते हैं जो समाज और देश के लिए कुछ नया और ऎसा उल्लेखनीय करते हैं कि उन्हें बाद में अर्से तक याद किया जाता है। जबकि अधिकांश लोग हमारी ही तरह उदासीन या कामचलाऊ ही होते हैं जो पूरी जिन्दगी कुछ नया नहीं कर पाते हैं।
पुरानी फाईलों, परंपराओं और रूढ़ियों पर चलते हुए तरह-तरह के जुगाड़ी दिमाग का इस्तेमाल करके काम निकालते हैं और धक्कागाड़ी की तरह चलते-चलाते हुए समय गुजार देते हैं। ऎसे लोगों को समय के साथ ही भुला दिया जाता है।
आजकल हर तरह के बाड़ों और गलियारों में काम करने वालों की बजाय कामों को एक-दूसरे की ओर खो कर देने वाले और कामचलाऊ लोगों की भरमार है। इसका मूल कारण यह भी है कि खूब सारे लोग जीवन निर्माण की प्रतिस्पर्धा से अनभिज्ञ हैं और उन्हें अपने स्थान बनाने के लिए कहीं कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा है इसलिए वे जमाने की हरकतों और जमीनी हकीकत से काफी दूर हैं।
दूसरी किस्म उन लोगों की है जिन्हें बिना कुछ मेहनत किए अपने पुरखों की शहादत पर अनुकंपात्मक कुर्सियाँ मिल गई हैं और इस कारण से इनका पूरा जीवन कामचलाऊ और धकाऊ से अधिक कुछ नहीं हो पाया है।
इसी प्रकार खूब सारे ऎसे भी हैं जिन्हें किसी न किसी की हरसंभव और यथायोग्य सेवा-चाकरी और समर्पण का पुरस्कार मिल चुका है और इस वजह से इनके लिए जीवन भर का एक ही मकसद रह गया है और वह है  जैसे-तैसे समय गुजारना और कामचलाऊ बने रहकर द्रष्टा भाव से उदासीनता ओढ़ कर उन लोगों के मजे लेना जो बेचारे संस्थानों और राज-काज के प्रति वफादार बने रहकर दिन-रात काम करते हैं।
असल में देखा जाए तो जो कुछ चल रहा है उसके लिए कुछ कर्मयोगी ही जिम्मेदार हैं जो अपने कत्र्तव्य को समाजसेवा और राष्ट्रीय कत्र्तव्य मानकर चल रहे हैं, अन्यथा क्या से क्या हो जाए, इस बात को सभी तहेदिल से स्वीकार करते हैं, सार्वजनिक तौर पर कहने का साहस भले ही वे नहीं जुटा पाएं।
ऎसे दासत्व और नालायकियों के सहारे जी रहे लोग सौ जन्मों में भी सच बोलने का साहस नहीं कर पाते हैं। इन लोगों के खून में गुलामी के कतरे हैं। जो लोग याचकों की तरह जीते हैं, औरों की दया और कृपा पर जिन्दा हैं तथा जिनका पूरा जीवन ही दूसरों के भरोसे चलता रहता है, ऎसे पराश्रित लोग ताजिन्दगी परजीवियों की तरह रहते हैं और अपना अस्तित्व भुला बैठते हैं।
हममें से कितने लोग हैं जो ईमानदारी से इस सत्य को स्वीकार करने का साहस रखते हैं कि हम न तो अपने फर्ज के प्रति ईमानदार हैं, न संस्थान, समाज या देश के प्रति। बल्कि हमें उस रकम से मतलब रह गया है जो महीने में एक बार हमारे खाते में जमा हो जाती है, हमें उस धन और भोग-विलासिता तथा संसाधनों से ही सरोकार रह गया है जो हमारे प्रभाव से अतिरिक्त रूप से प्राप्त होता है और जिसके लिए हम सायास प्रयत्न करने की तलब के शिकार हैं। हमें बिगाड़ने वाले हमारी ही तरह के खूब लोग हैं जिनकी शक्ल देखकर ही अंदाज लगाया जा सकता है कि ये गलती से इंसान बन गए हैं।
हममें से कोई बिरले ही होंगे जो ईश्वर को हाजिर-नाजिर रखकर पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकने की स्थिति में हैं कि हम जितना पा रहे हैं उतना या उसका आधा ही सही, काम करके दिखा रहे हैं, अपने कत्र्तव्य कर्म, समाज और देश के प्रति फर्ज को अच्छी तरह निभा पा रहे हैं।
जो फर्ज निभाने के प्रति समर्पित हैं उनके प्रति आदर-सम्मान और श्रद्धा अभिव्यक्त की ही जानी चाहिए। लेकिन हम जैसे लोगों को क्या कहा जाए जो कि मिनटों के काम घण्टों, दिनों और महीनों तक नहीं करते। कामों को कल ही कल पर टालते चले जाना, कामों से जी चुराना और मामूली कामों के लिए भी दिन-महीने-साल गुजार देना यही बताता है कि हम सब कामचलाऊ, टालू और कामढालू से ज्यादा कुछ नहीं हैं और हमारे भरोसे भारत माता की सेवा की सारी उम्मीदें व्यर्थ हैं। हमें तो भारतमाता की जय बोलने तक का कोई अधिकार नहीं है।
यह तो गनीमत है कि हमें अंदरूनी बाड़ों और गलियारों का ही काम मिला है, देश की सरहदों का जिम्मा होता तो शायद अब तक हमारे कहे जाने लायक न समाज होता , न बाड़े और गलियारे होते और न हमें कोई देशभक्ति के लिए कहने वाला होता।
हर क्षेत्र में निरन्तर परिवर्तन के दौर चलते रहते हैं। नये लोग आते हैं। उनके प्रति जनमानस में यह उम्मीदेंं होती हैं कि कुछ कर गुजरने का माद्दा लेकर आए हैं। लेकिन थोड़े दिन धामधीम और अपनी छवि चमकाने के लिए जोश और होश दोनों का झंझावात पैदा करते हैं और फिर लहू ठण्डा पड़ जाता है। जाने किन शहदियों छत्तों पर मुग्ध होकर पुरानों की लीक पर ही चलने लगते हैं।
आजकल नया जोश नौ दिन या नौ माह से अधिक नहीं रहता। दोष किसे दें, हमारे खून में ही ठण्डक आ गई, कुछ करना हम चाहते ही नहीं।  हमें अब हमारे फर्ज से कहीं अधिक मतलब प्राप्ति के लक्ष्य की तरफ हो गया है और इस लक्ष्य के आगे हमारे कर्म, फर्ज और धर्म सब कुछ स्वाहा होते चले जा रहे हैं।
लगता है कि वह बीज खत्म हो गया है जो समाज और देश के लिए निरन्तर उत्साह और उल्लास के साथ ऎसा कुछ माहौल बनाता था कि हर तरफ कर्मयोग की धाराओं से कोई न कोई सुनहरा बिम्ब ऎसा दिखने लगता था कि समाज और देश कुछ आगे बढ़ता दिखाई देता था।
समाज जीवन और कर्मयोग के चाहे जिस किसी क्षेत्र में हम हैं, थोड़ी फुरसत निकालें और गंभीरता से सोचें कि हम समाज या देश के लिए क्या कुछ नया कर पा रहे हैं।  हम कितना समय अपने लिए निकाल रहे हैं, कितना समय अपनी निर्धारित ड्यूटी के लिए, और कितना समय समाज व देश के लिए निकाल पा रहे हैं।
अपनी आत्मा की आवाज को सुनने का प्रयास करें और फिर तय करें कि हम कितने पानी में हैं। आत्मा की आवाज सुनकर प्रसन्नता और आत्मतुष्टि हो, तब तो मानें कि जीवन और कर्म दोनों सफल हैं। और आत्मा की आवाज सुनकर पछतावा हो, ग्लानि का अनुभव हो तब यह मान कर चलें कि हम कामचलाऊ ही बने रहे, अभी नहीं सुधरे तो हमने जो हरामखोरी की है, बिना मेहनत के तनख्वाह या मेहनताना लिया है, उसकी एक-एक पाई निकलने वाली है।
अभी तो बंधी-बध्ांायी रकम और बैंक बेलेंस, ऎशो आराम तथा भोग-विलासिता के साधन और व्यक्ति, आलीशान बंगले और एयरकण्डीशण्ड वाहनों का सुख हम भोग रहे हैं लेकिन गरीबों और जरूरतमन्दों की बददुआओं और हमारे निकम्मेपन से पैदा हुई नकारात्मक ऊर्जाएं एक न एक दिन परमाण्वीय पुंज के रूप में हमारे सामने होंगी और बरबादी का ऎसा मंजर दिखाएंगी कि हमारे होश फाख्ता हो जाने वाले हैं।

जो कुछ खोटे कर्म किए हैं, निकम्मापन दर्शाया है, हराम का पैसा लिया है, लोगों को तंग किया है, समाज और देश का नुकसान किया है, उसका हिसाब यहीं होने वाला है। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। जीवन का उत्तराद्र्ध सारा हिसाब करके ही पूरा होगा। समय की प्रतीक्षा करें। 

भरोसे काबिल नहीं झूठे और झूठन चाटने वाले

आलेख (20 फरवरी 2015 के लिए)
भरोसे काबिल नहीं
झूठे और झूठन चाटने वाले
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
हर इंसान अपने जीवन में कुछ न कुछ पाना चाहता है। चाहे बात व्यक्तियों की हो, विषयों की या फिर किसी भी प्रकार की चल-अचल संपदा की। इन्हें पाने के दो ही सीधे रास्ते हैं। एक तो यह कि अपनी काबिलियत और पुरुषार्थ से इन्हें हासिल करने का शुचितापूर्ण प्रयास किया जाए।
इस मार्ग से प्राप्त उपलब्धि जीवन भर शाश्वत आनंद प्रदान करती है। दूसरा रास्ता यह है कि अपनी सारी मानवीय संवेदनाओं, नैतिकताओं, आदर्शों और सिद्धान्तों की बलि चढ़ाकर उन तमाम रास्तों को अंगीकार कर लिया जाए जिन्हें इंसान के लिए वर्जित माना गया है।
इन रास्तों को नकारात्मक के साथ ही हीन माना गया है। लेकिन अधिकांश लोगों की फितरत में आजकल यही रास्ता सहज स्वीकार्य और सरल माना जाने लगा है।  हालांकि इस छोटे रास्ते या पिछले दरवाजे से आनंद लुटाने का मार्ग दिखाने वाला यह रास्ता जल्दी सधता है और इसमें कुछ अधिक मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है इसलिए अधिकांश लोग इसे ही अपना लेते हैं।
आजकल हर इंसान को लगता है कि समय कम है और ऎसे में जितना अधिक से अधिक अपने नाम कर लिया जाए, संचित हो जाए या लूट लिया जाए, वह श्रेष्ठ है और ऎसा करना ही ये लोग जीवन का चरम और परम लक्ष्य मानते हैं।
पवित्रता के रास्ते होने वाली हर प्राप्ति जीवन भर आत्म आनंद से भरे रखती है जबकि अपवित्र और वज्र्य रास्तों का इस्तेमाल करने के लिए मानवीय संवेदनाएं, नैतिक मूल्य और आदर्श सब कुछ छोड़ने पड़ते हैं और ऎसा करने के लिए धर्म और सत्य का आचरण त्यागना ही पड़ता है।
अधर्म और असत्य का आश्रय ही नापाक इरादों को अपने करीब खींच लाने का सामथ्र्य रखता है और ऎसा करने वालों के लिए जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता सिवाय अपने आनंद, भोग-विलासिता और संपन्नता पाने के।
इंसान के लिए जब भी सिद्धान्त और आदर्शों से कहीं अधिक लक्ष्य और सफलता के भाव जगने लगते हैं तब उसके लिए कोई सा कर्म अकर्म नहीं रह जाता। सारे कर्म सहज स्वीकार्य कर्म की श्रेणी में आकर अपनी आदत में शुमार हो ही जाते हैं।
जब एक बार कोई मुट्ठी खोल देता है फिर उसके लिए संसार का कोई सा काम न हीन होता है, न अस्वीकार्य। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप पूरी तरह ढल जाने की मानसिकता पाल लेने वाले लोगों के लिए सारा संसार अपना है, चाहे जिसका उपयोग या उपभोग करें।
कोई भी अपने काम साधने या आनंद पाने के लिए कुछ भी करे, करता रहे, किसी को इससे कोई सरोकार नहीं है लेकिन इसकी वजह से सामाजिक सरोकारों और दायित्वों की पूर्ति के प्रति किसी भी प्रकार की उदासीनता और शिथिलता आने का सीधा सा अर्थ यही है कि व्यक्ति के लक्ष्यों का रूपान्तरण हो चुका है।
इस बदलाव से कई सारे परिवर्तन अपने आप नज़र आने लगते हैं। जो लोग धर्म, ईमानदारी और सच्चाई पर चलते हैं उन लोगों के पास भले ही अनाप-शनाप धन-दौलत या वैभव की कमी दिखे, लेकिन उनके खाते में पाप भी कम ही होते हैं और जो हैं वे पाप भी वही होते हैं जो अनायास हो चुके होते हैं अथवा दूसरों को खुश करने के लिए होने वाले कर्म से।अन्यथा ऎसे लोगों का जीवन शुचितापूर्ण ही होता है और यही शुचिता आत्मतोष और आनंद की प्राप्ति कराती है।
दूसरी अवस्था में जो लोग अपने आनंद या वैभव के लिए अन्यान्य मलीन मार्गों और हीन व निंदित कर्मों को अपनाते हैं उनका कोई सा कार्य झूठ के बिना पूरा नहीं होता। इन लोगों को तकरीबन हरेक कर्म को पूर्णता प्रदान करने के लिए झूठ का सहारा लेना पड़ता है। और एक बार जब कोई झूठ बोलना आरंभ कर देता है तब उसके लिए झूठ सामान्य दिनचर्या का अहम् हिस्सा बन जाता है जिसके बगैर उसका दिन पूरा ही नहीं हो सकता। इस तरह रोजाना कई-कई बार झूठ बोलना इनके व्यक्तित्व का अंग बन जाया करता है।
हर झूठ जीवात्मा के पापों वाले खाते में जुड़ता चला जाता है और इस तरह इंसान की पूरी जिन्दगी पापों के पहाड़ पर टिकने लगती है। झूठ का आश्रय पाकर सफलता और आनंद का वरण करने वाला इंसान भले ही इस खुशफहमी में रहे कि वह औरों को भ्रमित करने में कामयाब हो गया है तथा झूठ की वजह से आनंद और भोग की प्राप्ति के सारे रास्ते निरापद हो चुके हैं, मगर असल बात यह है कि झूठ की बुनियाद पर किसी को आनंद या भोग अथवा सफलता की प्राप्ति संभव नहीं है, जो क्षणिक आनंद प्राप्त होने लगता है वह मात्र आभासी ही होता है जबकि इसके परिणाम अत्यन्त दुःखदायी ही होते हैं। ऎसे झूठ की असलियत सभी को पता चल जाया करती है।
कई बार झूठ बोलने वाले लोग ऎसे अकल्पनीय झूठ बोल जाते हैं कि किसी को भरोसा ही नहीं होता। झूठ बोल कर अपने आपको शातिर और माहिर समझने वाले लोगों को शायद यह पता नहीं होता कि कई बार बोला गया झूठ और बहाना भी किसी विशेष घड़ी का संयोग पाकर सत्य हो जाते हैं।
हर इंसान के जीवन में ऎसे काफी सारे क्षण आते हैं जब उसके द्वारा सोची या कही गई कोई सी बात सत्य हो ही जाती है। लेकिन जिन लोगों का पूरा जीवन ही झूठ और झूठन के सहारे चल रहा है उन्हें सत्य से क्या लेना-देना। इन लोगों को सदैव प्रत्यक्ष लाभ, भोग और आनंद ही नज़र आते हैं और इनकी प्राप्ति के लिए झूठ बोलना इनके लिए झूठ नहीं होकर सुविधा ही हो गया है।
जो लोग अपने छोटे-मोटे लाभों, भोग, आनंद और स्वार्थों के लिए बड़े-बड़े झूठ का सहारा लेते हैं उन पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब झूठ को अहम अपना संगी साथी बना लेते हैंतब वह अकेला नहीं होता। उसके साथ अविश्वास, स्वार्थ, कुटिलता, मलीनता, असंतोष, उद्वेग, अन्याय, अनाचार, शोषण, कर्महीनता, आत्महीनता, अपराध बोध और दूसरे सभी प्रकार के विकार भी साथ होते हैं जो हर झूठ को परिपुष्ट करते हुए इंसान को ताजिन्दगी भ्रमित रखने में अहम् भूमिका अदा करते हैं।

झूठ का आश्रय पाने वाले लोग अपने मामूली स्वार्थ या आयातित आनंद की प्राप्ति के लिए कभी भी कुछ भी कर सकने वाली स्थिति में होते हैं क्योंकि उन्हें अपने सबसे ताकतवर हथियार के रूप में झूठ पर सबसे अधिक भरोसा होता है। यह भी सच ही है कि झूठ ज्यादा दिन तक नहीं चल पाता, कभी न कभी तो परदे गिरने ही हैं।

उपयोगी है मेहनत की कमायी ही

आलेख (17 फरवरी 2015 के लिए)
उपयोगी है
मेहनत की कमायी ही
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

हर इंसान का स्वप्न होता है कि जीवन में उसके पास इतनी सम्पत्ति तो हो ही कि भविष्य को लेकर आशंकाएं न रहें और जीवन सुरक्षित ढंग से चलता रहे।
संतोषी लोगों के अलावा खूब सारे ऎसे भी होते हैं जिनकी चाहत आम आदमी से काफी ज्यादा होती है और ऎसे लोग अपनी ही नहीं बल्कि आने वाली सात पीढ़ियों तक की चिन्ता करते हैं और इतना अधिक जमा कर लेने को आतुर रहते हैं कि उनकी यह इच्छा पूरी हो जाए।
इसके लिए वे शरीर और बुद्धि का कई गुना अधिक इस्तेमाल करते हैं। इस लक्ष्य को पाने के लिए वे कुछ भी कर गुजरने को सदैव हर क्षण तैयार रहते हैं चाहे इसके लिए जो रास्ते या माध्यम हैं वे अच्छे हों या बुरे।
 सम्पत्ति के मामले में साफ तौर पर दो तरह के इंसान देखे जाते हैं। एक वे हैं जो पूरी ईमानदारी से काम करते हैं, जी भर कर परिश्रम करते हैं और उनकी हर कमायी के पीछे पुरुषार्थ की गंध होती है। ऎसे लोग जीवन भर हर क्षण प्रसन्न रहते हैं और संतोषी जीवन जीते हैं।  इन लोगों के पास न संचित कुछ बचता है, न औरों को दिखाने भर के लिए कुछ होता है लेकिन इनके पास मौज-मस्ती का जो संतोष होता है उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता है।
दूसरी किस्म में वे लोग आते हैं जिनके पास खूब सारी धन-दौलत, जमीन-जायदाद और सभी प्रकार का वैभव होता है लेकिन इसमें से इनके उपयोग का कुछ नहीं होता। जो कुछ होता है वह सिर्फ औरों की नज़रों में अपने आपको वैभवशाली बताने के भ्रम से अधिक कुछ नहीं होता।
इनके पास जो कुछ संचित होता है उसमें खून-पसीने से कमाया नगण्य होता है लेकिन इसके अलावा दूसरे रास्तों से आया हुआ इतना कुछ होता है कि इसकी गणना भी नहीं की जा सकती। इन दो प्रकार के लोगों के जीवन को देखा जाए तो साफ सामने आएगा कि जो लोग परिश्रम करते हैं, अपने कर्म के प्रति निष्ठा और ईमानदारी रखते हैं, वे लोग मस्ती के साथ संतोषी जीवन जीते हैं जबकि बिना किसी पुरुषार्थ के, गलत रास्तों से और बिना  मेहनत के जमा की गई सम्पत्ति इनके किसी काम नहीं आती बल्कि या तो यह संपदा ठगी में चली जाती है, चोरी में चली जाती है या नष्ट हो जाती है। लेकिन ऎसा होने से पहले तक भी इनकी यह सम्पदा इनके जीते जी किसी काम नहीं आती , बल्कि इनके मरने के बाद दूसरे लोग मौज करते हैं।
ऎसे लोगों की संख्या का कोई पार नहीं है जिन्होंने अपने जीवन में धर्म, कर्म और व्यवहार में न ईमानदारी बरती, न निष्ठाएं रखीं और न ही अपने कत्र्तव्य कर्म के प्रति कोई रुचि का भाव रखा। ड्यूटी से जी चुराने वाले, अपने कार्यस्थलों से गायब रहने वाले, मनोरंजन को कर्मयोग से अधिक मानने वालेअपने निर्धारित दायित्वों से जुड़े कर्मों को गौण मानकर दूसरे-तीसरे धंधों में रमे रहने वाले और हराम की तनख्वाह या मजदूरी पाने वाले लोगों के पास अपने नाम की जमीन-जायदाद तो खूब हो जाती है लेकिन ऎसे लोगों की यह सम्पत्ति उनके किसी काम नहीं आती।
ये लोग मर-मर कर धनसंग्रह करते हैं और मौत आने तक इसकी चौकीदारी की चिंता में ही घुटते रहते हैं। एक सीधा और साफ पैमाना यही है कि वही धन काम में आता है जिसे पुरुषार्थ से संचित किया जाए। बेईमानी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार से कमायी और ड्यूटी या अपने कर्म को गौण मानकर इकट्ठी की जाने वाली किसी संपदा का अपने लिए कोई उपयोग नहीं। सिर्फ हम अपने आपको ताजिन्दगी दूसरों की अपेक्षा बड़ा और समृद्धिशाली मानने या मनवाने का भ्रम पालते या फैलाते रहें।
असली सम्पत्ति हमारे जीवन के लिए उपयोगी होती ही होती है जबकि हराम की कमाई या कामचोरी के बावजूद मिलने वाला धन हमारे किसी काम नहीं आने वाला। इस सत्य को देखना हो तो आस-पास झाँक लें। हमें ऎसे खूब सारे लोग मिल जाएंगे जिन्हें हम धनी मानते हैं लेकिन अपने संचित धन में से एक धेला भर भी इनके काम नहीं आता।
तब यह मान लेना चाहिए कि इनके द्वारा अर्जित की गई संपदा पुरुषार्थहीन रास्तों से आयी है। जो धन मेहनत से कमाया जाता है वह इंसान के काम आए बगैर कभी भी अनुपयोगी पड़ा नहीं रह सकताउसका जीवन में सदुपयोग होना ही है।
लक्ष्मी चंचल है और ऎसे में जो धन हम खून-पसीना बहाकर कमाते हैं वह बिना उपयोग के ठहर ही नहीं सकता।  जो अनुपयोगी होकर ठहरी रहती है वह लक्ष्मी न होकर अलक्ष्मी है और इसका संग्रहीत पड़े रहने के सिवा और कोई उपयोग नहीं हो सकता।
ऎसी लक्ष्मी संग्रहकर्ता की मृत्यु के बाद ही कैद से मुक्त होकर दुरुपयोग के रास्तों पर चल पड़ती है। फिर इस धन के चौकीदार कभी भुजंगों का जन्म लेकर कुण्डली मारे बैठे रहते हैं या यह धन व्यसनों में बर्बाद होने लगता है।
यह भी शाश्वत सत्य ही है कि पुरुषार्थ के बिना प्राप्त किया गया धन कभी भी दान-पुण्य या सेवा-परोपकार के काम नहीं आ सकता, इसकी एक ही गति है, और वह है क्षरण। अलक्ष्मी होने की वजह से कोई भी इसका उपयोग धर्म-कर्म, सेवा या परोपकार में नहीं कर पाता।
हम खूब सारे ऎसे लोगों को देखते हैं जिनके सामने यह समस्या है कि दौलत तो काफी जमा हो गई है लेकिन इसे खर्च कहाँ करें। ये लोग लोकेषणा के चक्कर में अच्छे कामों में खर्च करने का मानस अक्सर बनाते भी रहते हैं मगर ऎसा हो नहीं पाता। और एक न एक दिन वह दिन आना ही है जब सब कुछ यहीं छोड़कर लौटना होगा।

इसलिए यह जन्म तथा आने वाला जन्म भी सुधारने की तमन्ना हो तो अपने कत्र्तव्य कर्मों को अच्छी तरह निभाएं और ईमानदारी के साथ परिश्रम करें, पुरुषार्थी बनें। इस आदत को त्यागें कि बँधी-बँधायी तो मिल ही रही है, चाहे कुछ करें न करें। बिना काम किए संचित धन का उपयोग मरते दम तक कभी संभव नहीं। और मरने के बाद तो इसका कोई अर्थ नहीं। अंतिम समय में ख्याल बना रहे तब भी क्या, सर्पयोनि में भी यह धन किस काम का। पड़े रहो हजार साल तक।

पहले कर्म, फिर मनोरंजन

आलेख ( 10 फरवरी 2015 के लिए)
पहले कर्म, फिर मनोरंजन
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

मनुष्य के रूप में सफलता और आनंद पाने का एक मात्र मार्ग यही है कि पहले सारे कत्र्तव्य कर्म पूर्ण कर लिए जाएं, फिर आनंद प्राप्ति के जतन।
यों देखा जाए तो जो लोग पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अपने कत्र्तव्य कर्म को पूर्ण कर लिया करते हैं उनके भीतर अपने आप आनंद भाव प्रतिष्ठित रहने लगता है क्योंकि जो आनंद स्व-कर्म में आता है वह आनंद किसी बाहरी कारक से कभी आ ही नहीं सकता।
कर्म की परिपूर्णता के आनंद के आगे दुनिया के समस्त आनंद गौण हैं और उनका कोई अस्तित्व नहीं हुआ करता। आजकल मनोरंजन के खूब सारे संसाधनों और भोग-विलास के लिए सहज उपलब्ध लोगों की इतनी बड़ी संख्या के बावजूद इसलिए आनंद की प्राप्ति नहीं हो पा रही है क्योंकि उन लोगों का एकमेव मकसद आनंद पाना ही है चाहे वह किसी भी माध्यम से आए। और इस आनंद प्राप्ति के फेर में ये लोग कर्तव्य कर्म को गौण मानने लग जाते हैं,  या इनके प्रति पूरी तरह उदासीन होकर रह जाते हैंं। 
यही कारण है कि कर्म को जो लोग गौण मानते हैं उन्हें अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। चाहे वे कितने ही सारे बड़े, वैभवशाली और महान लोगों के सहारे आनंद पाने की दिन-रात कोशिशें करते रहें अथवा उन्मुक्त भोग-विलास से जुड़े तमाम प्रकार के साधनों-संसाधनों और उपकरणों को ही क्यों न प्राप्त कर लें।
कर्महीन तथा कर्म को द्वितीयक श्रेणी का मानने वाले लोगों के जीवन से आनंद हमेशा दूर ही रहता है और ऎसे लोगों को मरते दम तक भी उस आनंद, तृप्ति या आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति नहीं हो पाती है जो इच्छित या अपेक्षित होता है।
ऎसे लोग खूब सारे लोगों, संसाधनों और सुकूनदायी माहौल होने के बावजूद आनंद से दूर रहते हैं और एक अजीब तरह की कमी इनके जीवन में हमेशा बनी रहती है जिसकी वजह से ये लोग कभी भी  भीतर से न तो प्रसन्न रह सकते हैं और न ही  औरों को प्रसन्नता दे सकते हैं।
बल्कि ऎसे लोग जिन्दगी भर अन्दरूनी तनावों और चिड़चिड़ेपन में ही जीते हैं। एक समय बाद ये लोग इस स्थिति में आ जाते हैं कि न कोई समझ पाते हैं, न इन्हें कोई समझा पाता है।  इसका मूल कारण यही है कि आनंद पाने की जी तोड़ कोशिशें करने और इसके लिए कई सारे मेल-बेमेल समझौतों के बावजूद इन्हें वह प्राप्त नहीं होता है जो इनके अवचेतन में कल्पनाओं के रूप में संग्रहीत होता है।
यही कारण है कि दुनिया में खूब सारे लोग ऎसे हैं जो कि सारे जतन करने और हर तरह के लोगों से सम्पर्क, संसर्ग और निरन्तर मेल-मिलाप के बावजूद खिन्न रहते हैं और वास्तविक प्रेम या आनंद का अभाव इनके चेहरे से हमेशा पढ़ा जा सकता है।
मनोरंजन हर इंसान की तासीर है और यह सभी को इच्छित होता है। इससे जीवन निर्वाह के लिए मन-मस्तिष्क और शरीर को ताजगी भी मिलती है और आनंद भी आता है। यही आनंद हमारे जीवन के तमाम कर्मों का मूलाधार भी है लेकिन इस मनोरंजन के लिए कत्र्तव्य कर्म को गौण मानकर मनोरंजन को ही जीवन में प्राथमिकता और प्रधानता देना इंसान की वो सबसे बड़ी भूल कही जा सकती है जो देर सबेर आत्मघाती स्वरूप में ही सामने आती है और इससे अन्ततोगत्वा ऎसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं कि आदमी के लिए उपलब्ध सभी प्रकार के मनोरंजन भी छीन लिये जाते हैं और कर्म भी।
इससे जीवन में किसी न किसी मोड पर आकर गाड़ी अटक ही जाती है और फिर ऎसा स्पीड़ बे्रेकर आ जाता है कि जिससे न आगे जाया जा सकता है, न पीछे।  एक बार जब इंसान के लिए मनोरंजन ही जीवन का लक्ष्य हो जाता है तब उसे मनोरंजन के लिए व्यक्तियों, समूहों अथवा खान-पान एवं भोग-विलास के संसाधनों की जबर्दस्त तलब हमेशा बनी रहती है और यह सब स्थितियाँ उसके लिए नशे की तरह हो जाया करती हैं।
इस स्थिति में वह इन्हें पाने के लिए व्याकुल बना रहता है और जब इसके लिए सहज में समय उपलब्ध नहीं हो पाता है अथवा कोई न कोई बाधा आ जाती है तब वह झूठ-फरेब और बहानों का सहारा लेने लगता है और फिर एक पर एक झूठ बोलते हुए पूरी जिन्दगी उसके लिए झूठ से परिपूर्ण हो जाती है।
झूठ और बहाने भी ऎसे-ऎसे कि किसी को यकीन तक नहीं हो पाता कि यह बहाना भर होगा। हर कोई इन बहानों को सच मानकर मानवीय संवेदनाओं और करुणा में भर ही आता है।
इस स्थिति में चाहे दोनों पक्ष अपने-अपने हिसाब से कोई न कोई बहाने भले ही बनाते रहें, मगर ईश्वर की निगाह दिन-रात इन पर लगी होती है। फिर कोई देखे या अनुभव करे न करे, अपनी आत्मा तो हमारे द्वारा कहे जाने वाले झूठ को अच्छी तरह जानती-समझती है और सच्चाई परखती ही है।
कई बार मनोरंजन मात्र के लिए हमारे मुँह से निकलने वाला झूठ भी योगमाया से किसी घड़ी में सही हो जाता है और तब हमें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन हम हैं कि कभी यह नहीं लगता कि हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए, यह कभी आत्मघाती भी हो सकता है।
मनोरंजन का आनंद मात्र लेने के लिए खूब सारे लोग अपने आत्मीय किसी की भी गंभीर या बीमारी का बहाना बनाते हैं और कभी कुछ। इनके पास बहानों की कोई कमी नहीं होती। दस जनम भी ले लें तो नए-नए बहाने तैयार मिलेंगे।
इन सबके बावजूद सच यही है कि हमें मनोरंजन का शाश्वत आनंद पाना हो तो उसके लिए यह जरूरी है कि जीवन में मन-वचन और कर्म में शुचिता रखें, पहले कत्र्तव्य कर्म पर ध्यान दें, और उसकी पूर्णता के बाद ही मनोरंजन की ओर उन्मुख हों।

ऎसा नहीें कर पाएं तो जीवन में आनंद पाने की कल्पना कभी न करें चाहे अपने पास मनोरंजन और भोग-विलास के लिए कितने ही परिपुष्ट व समृद्ध व्यक्ति, वस्तुएं हों या फिर संसाधन उपलब्ध क्यों न हों।

Saturday 21 February 2015

अपना धन काम आए अपने क्षेत्रों में ही

आलेख ( 21 फरवरी 2015 के लिए)
अपना धन काम आए
अपने क्षेत्रों में ही

- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

इन दिनों इंसानियत पर सबसे ज्यादा हावी है तो वह है तथाकथित धर्म। धर्म के मर्म और धार्मिक सरोकारों और महत्त्व से अनभिज्ञ लोग  उपासना पद्धतियों को ही धर्म मान बैठे हैं, रास्तों को ही लक्ष्य मानकर ऎसे जमे हुए हैं कि मंजिल की तरफ आगे बढ़ना चाहते ही नहीं।
धर्म का सीधा संबंध मानव और मानव, समुदाय, क्षेत्र तथा देश के उन पारस्परिक दायित्वों से है जिनमें पग-पग पर मानवीय संवेदना, सेवा, परोपकार, सदाचार, एक-दूसरे के कष्टों का हरण कर प्रसन्नता भरने और पिण्ड से लेकर प्रकृति और ब्रह्माण्ड तक में सकारात्मक प्रभाव, सुकून और आनंद के भाव भरने को ही प्रधानता दी गई है। 
जियो और जीने दो से लेकर तत्त्वमसि और वसुधैव कुटुम्बकम तथा सबै भूमि गोपाल की जैसे विचारों को ध्येय व लक्ष्य के रूप में स्वीकारा गया है। धर्म इंसान को मर्यादा का पाठ पढ़ाता है और यह सिखाता है कि उसे किस प्रकार जीना है, किस तरह औरों के लिए मददगार होना है।
लेकिन इन सारी बातों को हमने गौण कर लिया है और धर्म को सिर्फ संकीर्णताओं के दायरों में कैद कर दिया है जहाँ धर्म सार्वजनीन न होकर मत-मतान्तरों और संप्रदायों के दालानाेंं में कैद होकर रह गया है।
धर्म के नाम पर हो रही दुर्गति, विकृत समझ या गलत व्याख्याओं का ही परिणाम है कि आजकल जो कुछ हो रहा है उसे देखने-सुनने पर जी नहीं चाहता कि कोई हमें धार्मिक कहे। आज के तथाकथित धर्म ने रिलीजियस इण्डस्ट्री का जबर्दस्त स्वरूप पा लिया है जहाँ और कोई धंधा करने की कुव्वत हो न हो, धर्म के नाम पर कैसी भी दुकान डाल दो, चल निकलेगी।
बड़े-बड़े मठाधीशों के आश्रमों और मठों से लेकर मन्दिरों तक यही सब कुछ देखने को मिल रहा है जहाँ भक्त और भगवान के बीच पैसों और वीआईपी का ही रिश्ता रह गया है। दर्शन करने हों या स्वादिष्ट प्रसाद पाना हो, लाईन में लगने की विवशता को त्यागना हो या महंगे गिफ्ट देकर बाबाजी को राजी करना हो, लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर सत्संग कराना हो या कोई सी कथा।
हर मामले में वीआईपी कल्चर और मुद्रा राक्षसों का भयावह बोलबाला है। लगता है कि जैसे गरीब आदमी के लिए न भगवान है, न सत्संग और कथाएं।  धर्म और भारतीय मनीषा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि हमारे यहां प्रसाद बिकता है, हर धार्मिक क्रियाकर्म में दुकानदारी है और धर्म को भुनाने वाले पोंगे पण्डित, मठाधीश और धंधेबाजों के बूते ही धर्म चलता है।
कथाओं का धंधा ऎसा चल निकला है जैसे कि कोई मोबाइल फैक्टि्रयाँ ही हों। भगवान के नाम पर भी पैसा लिया जाने लगा है। जिन कथाओं में रुपयों पैसों और तृष्णाओं को छोड़ने, भगवान को अनन्य भाव से भजने और निष्काम पूजा-पाठ की बातों पर जोर दिया जाता है, वे लोग ही बिना पैसे लिए कथा करने तक को अधर्म मानने लगे हैं। और रकम भी कोई छोटी-मोटी नहीं, लाखों से कम नहीें। लानत है हमारे धर्माधीशों को, जो धर्म को बेचकर भोगी-विलासी बने हुए हैं और उधर गरीब लोग दो वक्त की रोटी तक को मोहताज हैं।
बात चाहे महामण्डलेश्वरों की पदवी पर बैठे महान लोगों की हो या साधु-साध्वियाें, गृहस्थों की हो या दूसरी किस्म के कथावाचकों या किसम-किसम के बाबाजियों और बाजीगरों की। जो लोग संसार को त्याग बैठे हैं वे भी लाखों - करोड़ों में खेलने को ही संन्यास मानने लगे हैं।
 पता ही नहीं चलता कि ये कौनसा धर्म है जिसमें ईश्वर को भुलाकर भोग-विलासिता, पैसों और धनाढ्य भक्तों की पूछ होती हो। आश्रमों के नाम पर बेशकीमती भवन और भूमि चाहिए, ण्यरकण्डीशण्ड कक्ष और सारी सुविधाएं चाहिएं, जैसे कि आश्रम न हो कर कोई रिसोर्ट्स ही हों।
ईश्वर हमें क्षमा करें, उनके बंदों के बारे में यह सब साफ-साफ कहना पड़ रहा है। लेकिन सत्य को उद्घाटित होना ही है, आज नहीं तो कल। पिछले कुछ समय से हर तरफ कथाओं का जोर है। हर शहर और कस्बे में साल भर में बीसियों बार भागवत और दूसरी कथाओं का क्रम बना हुआ है।
बावजूद इसके लोग वहीं के वहीं हैं, कुछ फरक नज़र नहीं आता। वे लोग भी एक ही किस्म के होते हैं जो किसी न किसी बहाने कोई न कोई आयोजन करवाने का पक्का सामथ्र्य रखते हैं और अपने-अपने इलाकों में परम भागवत, सिद्ध, भक्त, समाजसेवी और धार्मिक कहलाते हुए अपने जीवन को धन्य कर रहे हैं।
बिजनैस और मैनेजमेंट के सारे फण्डों से लेकर धर्मभीरू लोगों को अपने तरीके से हाँकने की कला कोई सीखे तो इनसे।  भारत के गांवों, कस्बों और शहरों से लेकर महानगरों तक में सालाना लाखों से लेकर अरबों तक की राशि इन आयातित संत-महात्माओं और कथाकारों को उपकृत करने धार्मिक आयोजनों, कथाओं आदि में खर्च हो रही है।
इसके बावजूद हर क्षेत्र में समस्याएं, मांग और गरीबी जस की तस बनी हुई है। आयेाजकों का समूह भी वही, और सुनने-सुनाने वालों का जमघट भी ठीक हर बार एक ही तरह का। फिर भी लोगों की न मानसिकता बदली है न धर्म के प्रति समझ ही बन पायी है।
हर क्षेत्र की अपनी समस्याएं हैं, मानवीय सेवा क्षेत्रों की तीव्र जरूरतें बनी हुई हैं, गरीबी और अभावों ने लोगों की जिन्दगी को अभिशप्त बना डाला है। ऎसे में हर क्षेत्र में स्थानीय जरूरतों को पूरी करने और समस्याओं के निपटारे के लिए स्थायी समाधान खोजने के प्रयत्न होने चाहिएं और जो पैसा कथाओं, सत्संगों और दूसरे दिखावटी धार्मिक आयोजनों के नाम पर बाहर जा रहा है, उसे रोक कर स्थानीय स्तर पर लोकसेवा की स्थायी गतिविधियों और जरूरतों पर खर्च किए जाने की आवश्यकता है।
लेकिन ऎसा नहीं हो पा रहा है, यह समाज और हर क्षेत्र के लिए दुःखद है। कल्पना करें कि जो स्थानीय पैसा अस्थायी कामों और आयोजनों के नाम पर बाहर जा रहा है, उसे यदि स्थानीय स्तर पर खर्च किया जाए तो हर क्षेत्र स्वर्ग ही बन जाए।
बाबाओं, कथाकारों और धार्मिक मठाधीशों को दिए जाने वाले पैसों का कोई उपयोग न समाज के लिए हो पा रहा है, न देश के लिए। बल्कि यह सारा पैसा उन लोगों के कब्जे में जा रहा है जो संसार को छोड़कर वैराग्य धारण कर चुके हैं अथवा कथाओं में माया से दूर रहने की बात करते हैं।
असल में ये लोग ही समाज के अपराधी हैं जो किसी न किसी बहाने धर्म के नाम पर लोगों से पैसा निकाल कर अपनी झोली भर लिया करते हैं और समाज वहीं का वहीं ठहरा होता है। हर क्षेत्र में आज स्थायी गतिविधि, काम और विकास की जरूरत है, हर क्षेत्र के लोगों के लिए सबसे बड़ा धर्म यही है कि स्थानीय स्तर पर ऎसा कोई काम-धंधा, सेवाश्रम या धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, अस्पताल, गरीबों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयोगी गतिविधियां व संस्थान हों, अभाव ग्रस्तों की मदद के लिए कोई कोई स्थायी फण्ड हो।
ऎसा नहीं होने से समाज दुरावस्था का शिकार है, धर्म के नाम पर अधार्मिक गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं और लगता है जैसे गरीबों के लिए धर्म या भगवान नहीं हैं बल्कि उन्हीं के लिए हैं जो चंदा इकट्ठा करने या करवाने, आयोजन करने करवाने या धर्म के धंधेबाजों के करीब हैं।
इन स्थितियों में हर क्षेत्र के लोगों को गंभीरता से सोचकर यह प्रण लेना चाहिए कि उनके क्षेत्र का पैसा उनके इलाके में ही किसी सेवा या परोपकार के काम में खर्च हो, कहीं बाहर नहीं जाए।

ऎसा होने पर ही समाज और देश का भला संभव है और धर्म कायम रखा जा सकेगा। धर्म को धंधा नहीं बनाएं बल्कि सेवा का माध्यम बनाएं और ऎसे काम करें कि जरूरतमन्दों के अभावों को दूर किया जा सके, गरीबी से परेशान लोगों के चेहरों पर मुस्कान लायी जा सके। ऎसा होने पर ही धर्म का कोई अर्थ है वरना यह अधर्म ही है।